8. ओरछा
श्रीराम धर्मशाला, ओरछा
20 फरवरी’ 95/ रात्रि 9:00 बजे
कल एवरेस्ट लॉज में मुझे ऐसा अनुभव हुआ था, जैसे मैं पुराने जमाने का एक मुसाफिर हूँ और लम्बी यात्रा के दौरान एक सराय में ठहरा हुआ हूँ। घोड़े के स्थान पर मेरे पास साइकिल है, जिसे मैंने अस्तबल के स्थान पर अहाते में खड़ा कर दिया है। कुछ पढ़ी हुई किस्से-कहानियों का असर था, तो कुछ नवगाँव कस्बे तथा लॉज का माहौल ही ऐसा था। कुछ फर्क भी थे, जैसे, सराय में मोटी मालकिन होती थी, तो यहाँ एक मरियल-सा अधेड़ लॉज का मैनेजर था; और सराय में मालकिन की बेटी साकी बनकर मदिरा पिलाती थी, तो यहाँ एक खूसट किस्म के बूढ़े ने आकर पूछा- क्या सेवा की जाय? मुझे किसी सेवा की जरुरत नहीं थी।
सुबह मुँह अन्धेरे उठकर मैं बाहर आया। अनुमान था- जब बस-स्टैण्ड है, तो चाय दूकान खुली मिलेगी। खुली मिली भी। चाय पीकर मैं तैयार होने लगा। यहाँ ‘अटैच्ड’ बाथरूम नहीं था। वैसे, इतनी सुबह कोई और जागा भी नहीं था। सुबह के सात बजते-बजते मैं लॉज से निकल पड़ा।
एक और चाय पीया, कुछ पेड़े बैग में डाले। पेड़े खाते हुए मैं धीरे-धीरे साइकिल चलाने लगा। ठण्ड थी, सो पहले कुछ देर धीरे साइकिल चलाकर मैं पैरों को गर्म कर लेना चाहता था। बाद में गति बढ़ाने का इरादा था।
जिस ढाबे के पास मैंने 16 की रात बितायी थी, वहाँ मैं चाय पीना चाहता था, मगर चाय बनाने वाले लड़के की रोनी सूरत देखकर मैंने इरादा बदल दिया। आगे बढ़ने से पहले मैंने उस बूढ़े बाबा को नमस्ते किया, जिन्होंने उस रात मुझे ढाबे की चारपाई को स्कूल-भवन तक ले जाने की अनुमति दी थी। बूढ़े ने इतनी जल्दी मुझे ‘अच्छा जाओ’ कहा कि मुझे अटपटा लगा। शायद उन्हें लगा हो कि मैं उनसे कोई मदद न माँग लूँ!
अगले एक ढाबे में देशी अण्डे का आमलेट खाकर मैंने चाय पीया। 10 बजे डैम पार करके मैं उत्तर प्रदेश की सीमा में आया।
मुझे पहले ही लग गया था कि यह अब तक का सबसे बोर सफर होगा, और ऐसा हुआ भी। 42 किलोमीटर के उबाऊ सफर को पार करके किसी तरह मऊरानीपुर पहुँचा। वहाँ जो मिला, खाया- पूरी, सब्जी, रायता और मिठाई। तब तक साढ़े बारह बज गये थे।
फिर सफर पर आगे बढ़ा। न मुझमें जोश था, न साइकिल साथ दे रही थी और न ही आस-पास के दृश्य सुन्दर लग रहे थे।
डेढ़ बजे एक बरगद के पेड़ के नीचे ग्राउण्ड शीट (वास्तव में यह स्पंज की एक शीट थी, जो देवगण ने चलते समय दिया था) बिछाकर लेटा- घुटनों पर मालिश भी किया, फिर चलना- बल्कि घिसटना शुरु किया।
एक साइकिल सवार ने मुझे बताया था कि मेरी साइकिल छोटी है और इसे चलाते वक्त मेरे पैर सीधे नहीं होते हैं, इसलिए मेरे घुटनों में दर्द हो रहा है। बात सही थी- एक तो मेरी साइकिल बी.एस.ए. एस.एल.आर. थी और दूसरे, मैंने शुरु से ही इसकी सीट नीची करवा रखी थी। जबकि लम्बी यात्रा में पेडल मारते समय पैरों का बिलकुल सीधा हो जाना अच्छा रहता होगा। खैर।
इस बार बरुआसागर के बाजार में मैंने खोये का गुझिया खाया और चाय पीया। दूकान पर चश्मा भूलकर मैं आगे बढ़ गया था। कोई दो सौ मीटर आगे बढ़ने के बाद मुझे याद आया और लौटकर मैंने चश्म लिया। ऐसा इस सफर में पहली बार हुआ, जब मैं कोई सामान भूला।
शाम छह बजने में दस मिनट बाकी थे, जब जंगल पार करके मैं बेतवा नदी के पुल पर पहुँचा। वहाँ से मध्य प्रदेश की शुरुआत हुई। बीच में फिर उत्तर प्रदेश आया और फिर मध्य प्रदेश।
जहाँ से झाँसी 8 किलोमीटर दूर था, वहीं से ओरछा के लिए 8 किलोमीटर लम्बा रास्ता बाँयी तरफ निकल रहा था। आज मैं थक गया था। अब तक सूरज डूब चुका था।
सवा छह बजे ओरछा के रास्ते पर आगे बढ़ा। काफी उतार-चढ़ाव थे। मैं उसी हिसाब से कभी साइकिल चलाता, तो कभी पैदल चलता। आज करीब बारह घण्टे का सफर हो गया था। पीठ में हल्का दर्द भी हो रहा था।
दाहिने हाथ की केहुनी पर और बायें हाथ की कलाई के आस-पास कुछ फुन्सियाँ भी नजर आ रही थीं- हल्की खुजली के साथ। छतरपुर में चाय पीते वक्त मैंने इन्हें देखा था। पता नहीं, किसकी प्रतिक्रिया थी! मजे की बात तो यह थी कि खजुराहो जाते समय ठीक छतरपुर में ही मैंने दाहिनी केहुनी पर उसी जगह इन फुन्सियों को देखा था, जो बाद में गायब हो गयी थीं। अब पता नहीं, छतरपुर तथा इन फुन्सियों में क्या सम्बन्ध है!