5. खजुराहो

 

18 फरवरी 1995

(शाम 07:15 बजे)

            यह समय जबकि जगमगाते बाजार में रहने का है, मैं होटल के बिस्तर पर लेटे-लेटे यह लिख रहा हूँ। सूर्यास्त के समय जब खुले आकाश के नीचे एक कैफेटेरिया में बैठे चाय पी रहा था, तब उल्टा लग रहा था- मन कर रहा था, चलकर आराम से लेटते हैं। वैसे भी, छोटा-सा बाजार है। सुबह से छः-सात चक्कर लग चुके हैं।

            आज होटल में मेरी नीन्द सुबह जल्दी खुल गयी थी, मगर मैं जानबूझ कर पड़ा रहा। इस हॉल में और दो ही लोग थे- एक स्मार्ट-सा राजस्थानी ड्राइवर, जो दो परिवारों को लेकर दिल्ली से लम्बी यात्रा पर निकला हुआ था और दूसरा, यहीं का एक स्टाफ, जो बुखार से पीड़ित था। दोनों बेसुध सो रहे थे। मैंने लेटे-लेटे एकबार सोचा- सूर्योदय के साथ मन्दिरों की तस्वीर कैसी रहेगी? फिर याद आया- कैमरे में तो अभी रील ही नहीं है! कुछ देर में फिर आँख लग गयी।

सात बजे उठा- दोनों तब भी सो रहे थे। तैयार होकर हैवर-शेक में कैमरा, फ्लैश वगैरह लेकर मैं साइकिल से ही रवाना हो गया। पश्चिमी मन्दिर समूह से कोई सात-आठ सौ मीटर दूर था यह होटल।

            एक ‘खुला गगन’ कैफेटेरिया में चाय पीया, रील लेकर कैमरा लोड किया और बैग कन्धे पर टाँगकर टिकट लेकर मैं पश्चिमी मन्दिर समूह में दाखिल हुआ। मैंने ट्रैक सूट का काला ढीला लोअर, जो बैगी-किस्म का था और सफेद ढीला टी-शर्ट पहन रखा था। पैरों में था लखानी का हवाई चप्पल। कैप और फोटोक्रोम का चश्मा भी था। कई हॉकरों ने विदेशी समझ लिया था।

            लक्ष्मी और वराह मन्दिरों से शुरुआत किया। दोनों छोटे मन्दिर हैं। फिर लक्ष्मण मन्दिर की ओर रुख किया, जो लगभग सम्पूर्ण मन्दिर है। बड़े पैमाने पर सफाई का काम चल रहा था। शायद मार्च में होने वाले ‘खजुराहो महोत्सव’ की तैयारी थी।

            पहले मन्दिर के चबूतरे का चक्कर लगाया। बस मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ। दैनिक क्रिया-कलाप,  शृँगार, शिकार, नृत्य-संगीत, युद्ध इत्यादि से सम्बन्धित मूर्तियाँ। मगर लोगों को आकर्षित करती हैं काम-कला को दर्शाती मूर्तियाँ। काम वासना से सम्बन्धित जितनी तरह की कल्पनाएं और फन्तासियाँ मानव के मन में आ सकती हैं, उन सबों को बिना किसी लाग-लपेट और दुराव-छुपाव के यहाँ सुन्दर सुघड़ मूर्तियों में उभार दिया गया है। विदेशी सैलानी यहाँ आकर दाँतों तले उँगली दबा लेते होंगे। आज के जिस भारत को वे दकियानूस समझते हैं, वहीं एक हजार साल पहले (जब स्वयं ये पश्चिम वाले दकियानूस और असभ्य थे) विचारों की इतनी आजादी थी! अपनी भौतिकवादी पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठ समझने वाले ये लोग यहाँ आकर महसूस करते होंगे कि उनकी भोगवादी संस्कृति भारत की संस्कृति के पैर की कानी उँगली के बराबर भी नहीं है। भारतीय संस्कृति ने तो ‘काम’ को धर्म, मोक्ष और अर्थ के बराबर का दर्जा दे रखा है (चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) और इसपर बाकायदे शास्त्र रचे गये हैं। 

            यह भी एक सिद्धान्त है कि सांसारिक सुखों को पहले भोग लिया जाय। जब मन भर जाय और सांसारिक सुखों की निरर्थकता का अहसास हो जाय, तब ईश्वर का ध्यान किया जाय। इससे ध्यान भटकने का अवसर नहीं रहता। इसी प्रकार, मन्दिर के चबूतरे के चारों तरफ घूमकर पहले सांसारिक विषयों को जी भर के देख लिया जाय, उसके बाद ही मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश किया जाय। फिर वहाँ ईश्वर का ध्यान करते समय मन विचलित नहीं होगा।

            आजकल- एक को छोड़कर- इन मन्दिरों में पूजा-अर्चना नहीं होती। सिर्फ एक ही मन्दिर में आरती होती है, घण्टे-घड़ियाल बजते हैं। बाकी तो “मानवता के धरोहर” हैं। लोग आँखें फाड़े इसके शिखरों की बनावट को देखते हैं और इसकी दीवारों की एक-एर्क ईंच पर की गयी मूर्तिकारी को निहारते हैं। इन मन्दिरों में जो सन्देश है, उसपर कम ही विचारते हैं।    

            खजुराहो मन्दिरों की मूर्ति कला ही लोग देखने नहीं आते, बल्कि स्वयं मन्दिर अपने-आप में भव्य और दर्शनीय हैं। इनकी डिजाइन, इनकी इंजीनियरिंग बेमिसाल है। नवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच चन्देल राजाओं ने छोटे-बड़े करीब तीन सौ मन्दिरों का निर्माण करवाया था- ऐसी जानकारी मिलती है। सैकड़ों वर्षों तक गुमनामी में खोये रहने के बाद 1950 के आस-पास इन मन्दिरों के तरफ फिर लोगों का ध्यान गया। तब तक 20-22 मन्दिर ही साबुत बचे थे। हालाँकि ध्वंसावशेष साठ-पैंसठ मन्दिरों के पाये जाते हैं। साबुत बचे मन्दिरों में भी 30-40 प्रतिशत मूर्तियाँ खण्डित हैं। अभी तो खैर यूनेस्को ने इन मन्दिरों को ‘विश्व धरोहर’ घोषित कर दिया है और अब इनके संरक्षण के उपाय किये जा रहे हैं।

            यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा इतने बड़े और विशाल मन्दिर जिन पत्थरों से बने हैं, उन्हें सीमेण्ट-जैसे किसी मसाले से नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ फँसाकर (इण्टरलॉकिंग) टिकाया गया है। खजुराहो में एक संग्रहालय भी है, जहाँ मन्दिरों के वास्तुशिल्प पर जरुरी जानकारियाँ उपलब्ध है। उन्हें जानने पर आपको कहना पड़ेगा कि खजुराहो मन्दिरों के डिजाइन अपने-आप में ‘परफेक्ट’ है। लक्ष्मण, कन्दरिया महादेव और जगदम्बी मन्दिरों को ‘मास्टर पीस’ कहा जा सकता है। चित्रगुप्त और विश्वनाथ मन्दिर भी भव्य हैं।

            फोटोग्राफी करते समय पता चला, यहाँ कम-से-कम दो रोल चाहिए। मैंने एक ही से काम चलाया- कई सुन्दर मूर्तियों को छोड़ते हुए- क्योंकि अभी पूर्वी समूह में भी कुछ मन्दिर थे। तीन स्नैप यहाँ बेकार भी गये।

            एक मन्दिर की सीढ़ियों पर एक युवा जोड़ा बैठा था- शायद ‘हनीमून’ ट्रिप पर आये हों- दोनों मुझे आते हुए देख रहे थे। उनकी ओर ध्यान दिये बिना मैं मन्दिर के गर्भगृह में चला गया। और कोई पर्यटक उस वक्त उस मन्दिर में नहीं था। अन्दर मैं खम्भों के ऊपर से गायब मूर्तियों की संख्या का अनुमान लगा रहा था। मेरे भारी-भरकम रूसी कैमरे पर चार सेलों वाला फ्लैशगन लगा था और सर पर कैप उल्टी थी (फोटो खींचने में आसानी के लिए)। थोड़ी देर में युवक ने मेरे पास आकर बड़े सलीके से पूछा- “डू यू नो हिन्दी?” मैंने बड़ी सहजता से कहा- “ऐसी क्या बात है?” वह झेंप गया। उसकी झेंप मिटाने के लिए मैं उसे गायब मूर्तियों के बारे में बताने लगा। उसने पूछा, “आप भी इसी फील्ड से हैं क्या?” उसका मतलब ‘पुरातत्व’ से था। मैंने सोचा, मजाक में पूछूँ- ‘आपका मतलब ‘मूर्ति-तस्करी’ से है क्या?’ मगर मैंने उसे खम्भों को ध्यान से देखने को कहा- “ध्यान से देखिये, आप भी समझ जायेंगे।” हर एक खम्भे पर आठ मूर्तियों के लिए स्थान बने थे और ज्यादातर मूर्तियाँ गायब थीं। चूँकि मूर्तियों को “इण्टरलॉक” करते हुए स्थापित किया गया है, इसलिए इन्हें निकालना आसान हो जाता होगा! उसने कहा, “आपने इसे ऑब्जर्व किया, यही बहुत है।”  

उस जोड़े को दरअसल फोटो खींचवाना था- कुछ-कुछ ‘खजुराहो’ अन्दाज में। मैंने खींच दिया।

            दोपहर के बाद मैं पूर्वी समूह वाले मन्दिरों की ओर गया। वहाँ जैन मन्दिर के अन्दर दीवार पर चढ़कर बड़ी मुश्किल से मैं अन्धेरे कोने में छुपी एक मूर्ति पर फोकस कर रहा था कि सिल्वेस्टर स्टालन-जैसे शरीर वाला एक विदेशी अन्दर आया। उसने कहा- “हलो।” मैंने भी “हाय” कहा। फिर मैंने उसे उस मूर्ति की खासियत बताई कि यह प्रसिद्ध ‘खजुराहो चुम्बन’ वाली युगल मूर्ति है, मगर इतने कोने में है कि नजर नहीं आती है। उसने भी वह फोटो लिया।

बातचीत के क्रम में जब मेरे मुँह से निकला कि “वी इण्डियन्स आर वेरी इज-लविंग, आवर मोटो इज- लेट इट रन”, तो उसने जानना कि मैं कहाँ का हूँ? ऐसा लगता है, जैसे हवाई चप्पल पहनकर घूमने का अधिकार सिर्फ विदेशी-सैलानियों को ही प्राप्त है और मैं ऐसा करके कोई नियम तोड़ रहा था। मद्रास के मेरिना बीच पर कन्धे पर जूते लटकाये, पैण्ट के पाँयचे मोड़कर समुद्र की लहरों का आनन्द लेते समय नवल ने एक टिप्पणी की थी- हम भारतीयों का बस चले हम तो सी’बीच पर भी थ्री-पीस में जायें!  

            वहाँ से आकर मैं संग्रहालय में गया। फिर खाना खाकर होटल में लौटा। फिर बाहर आया, कपड़े धोने का साबुन लेने। साबुन लाकर कुछ कपड़े धोये। फिर ट्रैक सूट पहनकर निकल पड़ा- तब तीन बज रहे थे। पहले बीस किलोमीटर दूर रानेह जलप्रपात जाने का विचार था, मगर बाद में छोड़ दिया। वापस पश्चिमी समूह वाले मन्दिरों में गया। मुझे एक खास मूर्ति की तलाश थी। मगर वह नहीं ही मिली।

पूर्वी समूह में भी मैं दो मन्दिर गलती से छोड़ आया था- इसका पता मुझे खजुराहो का नक्शा देखकर चला। दुबारा वहाँ भी गया। वे दोनों मन्दिर जरा वीराने में थे- सड़क नहीं बनी थी। दोनों अपेक्षाकृत छोटे मन्दिर थे। एक वराह, दूसरा ब्रह्मा। अच्छे ही थे।

            वहाँ से लौटकर उसी कैफेटेरिया में चाय पीया, जहाँ सुबह और दोपहर चाय पी चुका था। तब तक अन्धेरा घिरने लगा था। थोड़ी देर अखबार पढ़ा फिर होटल में आ गया। डायरी लिखना शुरु किया। नौ बजे उठकर जाकर नाश्ता करके आया। फिर लिखने बैठा। अभी कोई साढ़े दस बज रहे हैं। अब बाहर जाकर खाना खाना है।

            कैफेटेरिया में एक व्यक्ति ने सलाह दिया था कि यहाँ से बस द्वारा आगरा चले जाओ- साइकिल को बस के ऊपर चढ़ा देना। फिर आगरा से ग्वालियर चले जाना। मगर ऐसा करने से एक तो ओरछा घूमना रह जायेगा, दूसरे फिर यह ‘साइकिल यात्रा’ कहाँ रह जायेगी! वैसे घुटनों का दर्द अपनी जगह कायम है। देखा जाय, कल क्या फैसला लेते हैं।

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गायब मूर्तियों के बारे में-

पश्चिमी समूह के मन्दिरों में मण्डप के अन्दर चार या ज्यादा खम्भे हैं और हर खम्भे पर आठ मूर्तियों के लिए स्थान बने हैं। लक्ष्मण मन्दिर, जिसे ‘सम्पूर्ण’ माना जाता है- के कुछ खम्भों पर आठों मूर्तियाँ हैं; फिर भी, कुल मिलाकर, आठ-दस मूर्तियाँ गायब हैं।

कन्दरिया महादेव मन्दिर के खम्भों से दो-चार को छोड़ सारी मूर्तियाँ गायब हैं और जगदम्बी मन्दिर में तो एक भी मूर्ती नहीं है! जगदम्बी मन्दिर के मण्डप में दो खम्भे ज्यादा हैं और हर खम्भे पर चार-चार मूर्तियों के लिए स्थान बने हैं। मूर्तियों के “गायब” होने के सबूत साफ दीखते हैं।

चित्रगुप्त मन्दिर, विश्वनाथ मन्दिर और वराह मन्दिर के खम्भों से भी सारी मूर्तियाँ गायब हैं।